Wednesday 20 March 2019

कैलाश झा किंकर के एक होली गीतिका और तीन घनाक्षरी वार्णिक छंद कविता

अंगिका
गीतिका




सब्भे ले' ऐलै बहार,अबकी होली मे ।
केना के' रहियै कुमार, अबकी होली मे ।

रामू के' भेलै ब्याह श्यामू के' भेलै
हमरा ले' नै बरतुहार, अबकी होली मे ।

हमरा से' छोट-छोट के' कनियाँ बसै छै
ठोकै छी हम्मे कपार, अबकी होली मे ।

तीसो के पार भेलै हम्मर उमरिया
बाबूजी करहो विचार, अबकी होली मे ।

नौकरी नै भेलै ते' हम्मर की दोष छै
ट्यूशन से' तीस हजार, अबकी होली मे।
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मनहरण घनाक्षरी वार्णिक छन्द
अंगिका 
वसंत ऋतु

आबी गेलो छै बसंत, फूल खिललै अनन्त
हँस्सै सब्भे दिग्दिगंत, शोभै ऋतुराज छै ।
मंजरि गेलो छै आम, झूमै छै गाछी तमाम
कोयली लागै ललाम, मधुरी आवाज छै ।।
देखा-देखी कौआ बोलै, काँव काँव काँव करै
 कोयल नांकी कौआ मे, सुर छै न साज छै।
भनई कैलाश कवि, वासंती निहारी छवि
माता सरोसती जी के, पूजन सुकाज छै ।।

(2)

वासंती उमंग छिकै, भौंरा नै अनंग छिकै
संगिनी के संग छिकै, मोन फगुआय छै ।
हरा,लाल,पीला,रंग, गोरी के करै छै तंग
भांग पीने छै मतंग, रंग से नहाय' छै ।।
उड़ै सगरो गुलाल, होलै लाल मुँह-गाल
बूढ़ा-बूढ़ी भी बेहाल, खूब खिसिआय छै
भनई कैलाश कवि, होली खेलै खास कवि
ढूँढ़ै छी वसंती छवि, जहाँ वें नुकाय छै ।

(3)

चूवै महुआ पथार, पीरो-पीरो रस-धार
करै धरती सिंगार, शोभै छै वसंत मे ।
ऐलै कोंपल हजार, गाछी-गाछी में बहार
शोभै टेसू के कतार, भौंरा मकरन्द मे ।।
बजै मनो के सितार, ढोल झाल के सम्हार
ऐलै होली के त्योहार, खुशी ढूँढ़ो कंत मे ।
भनई कैलाश हार, बहियाँ के छै तैयार
करो खूबे प्रेम प्यार, खुशी पाबो अन्त मे ।।

....
कवि- कैलाश झा किंकर
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