Wednesday, 19 June 2019

बुतरू-तुतरू (अंगिका कविता) / कवि - राजकुमार भारती

जखनी हम बुतरू छेलियै



जखनी हम बुतरू छेलियै
तुतरू ले कानै छेलियै

भोरे भी हाँस्सै छेलियै
साँझे भी खेलै छेलियै
झौगरी ऊखाड़ै छेलियै
भुट्टा भी तोड़ै छेलियै
खेत खलिहानमा में
मजा ऊड़ाबै छेलियै
जखनी हम बुतरू छेलियै
तुतरू ले कानै छेलियै

इसकूल मे पढै छेलियै
सेवा भी करै छेलियै
कभी कभी मासब से
मारो भी खाईये छेलियै
आटा पिसाबै छेलियै
भुन्जा भुंजाबै छेलियै
मैय्यो आरू बाबू के
कहना ते मानै छेलियै
जखनी हम बुतरू छेलियै
तुतरू ले कानै छेलियै

केतना मस्ती करलियै
केतना कस्ती चढलियै
आबे जब सोचै छियै
याद सभ्भे आबे लगलै
बहुते पछताबै छियै
चुप्पे चुप रोयै छियै
दिन ऊ कहाँ गेलै
दशा ई कैसन भेलै
कभी कभी मन छै करै
खुभ्भे हम बैठौ कानी
फेरू होय जाँअ हम बुतरू
कोय दिये लानी तुतरू

फेरू होय जाँअ हम बुतरू
कोय दिये लानी तुतरू।
...
कवि - राजकुमार भारती 
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